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  • क्या है भारत में गधों की संख्या कम होने का कारण?क्या है भारत में गधों की संख्या कम होने का कारण?

    क्या है भारत में गधों की संख्या कम होने का कारण?

    क्या आप जानते हैं भारत में लगातार कम हो रही है गधों की संख्या। अगर यही हाल रहा तो विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले 20 सालों में हम इस प्रजाति को चिड़ियाघर जैसी जगहों पर भी नहीं देख पाएंगे। अब सवाल ये है कि भारत में लगातार गधों संख्या कम क्यों हो रही है? उसका एक जवाब तो ये है कि भारत में गधों की कालाबाज़ारी पर किसी का कोई खास ध्यान नहीं है और दूसरा ये कि भारत में गधों की उपयोगिता ना के बराबर हो गई है। यही वजह है कि भारत में गधों की संख्या लगातार घट रही है।

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  • उत्तर प्रदेश में कौन सा मौसम किस फसल के लिए अच्छा होता है?उत्तर प्रदेश में कौन सा मौसम किस फसल के लिए अच्छा होता है?

    उत्तर प्रदेश में कौन सा मौसम किस फसल के लिए अच्छा होता है?

    भारत एक ऐसा देश है जिसमें एक राज्य से दूसरे राज्य तक जाने पर भाषा के साथ साथ मौसम भी अलग हो जाता है। मौसम के आधार पर ही विभिन्न राज्यों में अनेक तरह की फसलें बोई और काटी जाती है। अगर बात करें उत्तर प्रदेश की तो यहाँ की मुख्य फसलें गन्ना, गेहूं और धान हैं। गन्ने की खेती की वजह से ही उत्तर प्रदेश को चीनी का कटोरा भी कहा जाता है। गन्ने की फसल गेहूँ की फसल कटने के तुरंत बाद अप्रैल और मई के महीने में बोई जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि गर्मी के मौसम के तुरंत बाद बरसात का मौसम शुरू हो जाता है और बरसात का मौसम गन्ने की खेती के लिए अमृत की तरह होता है। इसी मौसम में गन्ने की अच्छी बढ़त होती है। विशेषज्ञों की मानें तो जितनी ज़्यादा बारिश होती है उतना ही गन्ना अच्छा होता है अर्थात् गन्ने की गुणवत्ता बढ़ जाती है। यही कारण है कि गन्ने की फसल को मई के महीने में लगाया जाता है ताकि सर्दी आने तक उसे काटा जा सके। जब गन्ने की फसल को काटा जाता है उसके तुरंत बाद ही गेहूँ की फसल की बुवाई शुरू कर दी जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि शुरुआत में गेहूं की फसल के लिए ऐसे मौसम की ज़रूरत होती है जिसमें सूरज की तेज़ धूप फसल पर न पड़े। इस पर किसानों का कहना है कि जब गेहूँ के बीज से पौधा निकलता है तो वह बहुत कमज़ोर होता है यानि वह तेज़ धूप और बारिश बर्दाश्त नहीं कर सकता है और ऐसा मौसम सिर्फ जनवरी के महीने में होता है। इसलिए गेहूँ की फसल सर्दी के मौसम में लगाई जाती है। किसान ये भी कहते हैं कि गेहूँ की खेती के लिए शुरू में हल्की बारिश की ज़रूरत होती है लेकिन उसके बाद जब गेहूँ पकने लगते हैं तो बारिश गेहूँ की फसल के लिए ज़हर का काम करती है। कभी - कभी तो बिन मौसम बारिश की वजह से गेहूँ की फसल को काफी नुकसान भी हो जाता है। लेकिन अक्सर देखा गया है कि मार्च और अप्रैल के महीने में बारिश नहीं होती है और गेहूँ की फसल को पकने का अच्छा समय मिल जाता है। फसल पकने के बाद अप्रैल के अंत तक फसल को काट लिया जाता है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में कुछ किसान धान की फसल भी उगाते हैं। धान की फसल को भी मौसम के हिसाब से ही बोया जाता है। धान की फसल को गर्मी के मौसम में बोया जाता है। वैसे तो धान की फसल के बुवाई का समय विभिन्न किस्मों पर निर्भर होता है लेकिन 15 मई से 20 जून के बीच का समय इसके लिए सही माना गया है। धान की खेती में जब धान का पौधा अच्छी तरह जड़ें पकड़ लेता है उस वक़्त उसे बारिश की ज़रूरत होती है और धान की बुवाई का समय ऐसा है कि जब तक धान का पौधा बड़ा होता है तब तक बरसात का मौसम आ जाता है। बरसात के बाद सर्दी से पहले सितंबर के महीने में धान की फसल पक कर तैयार हो जाती है। फसल पकते ही इसे काट लिया जाता है। इस तरह कह सकते हैं कि मौसम हमारी जिंदगी में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। लेकिन हम इस तरफ कभी ध्यान नहीं दे पाते हैं। ये भारत के एक राज्य की खेती के बारे में है , इसी तरह भारत के विभिन्न राज्यों में अलग अलग तरह की खेती की जाती है जो कि पूरी तरह मौसम पर निर्भर होती है और सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के सभी देशों में खेती के लिए मौसम की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। कभी-कभी हम देखते हैं कि प्याज़ के दाम आसमान छूने लगते हैं। ऐसा क्यों होता है आपने कभी सोचा है? ये सब मौसम के कारण होता है। आपने देखा होगा कि कभी-कभी बहुत से राज्यों में ज्यादा बारिश की वजह से बाढ़ आ जाती है, बाढ़ आने या ज़्यादा बारिश होने का सबसे बड़ा नुकसान सब्ज़ियों की पैदावार पर पड़ता है। यही कारण है कि कभी-कभी प्याज़ या दूसरी सब्ज़ियों के दाम इतने ज़्यादा बढ़ जाते हैं।

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  • क्या है राजधानी एक्सप्रेस और इसे क्यों बनाया गया है?क्या है राजधानी एक्सप्रेस और इसे क्यों बनाया गया है?

    क्या है राजधानी एक्सप्रेस और इसे क्यों बनाया गया है?

    राजधानी एक्सप्रेस यानी वह रेलगाड़ी जो देश की राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली को बाकी राज्यों की राजधानी से जोड़ती है। एक ऐसी ट्रेन जिसे पिछले 53 सालों से आज तक भी सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है। इस ट्रेन को समय की बचत के लिए बनाया गया था। भारत की पहली सुपर फास्ट ट्रेन यानी राजधानी एक्सप्रेस की शुरुआत 1969-70 में की गई। उस वक़्त कहा गया कि ये ट्रेन 18 घंटे से भी कम समय में दिल्ली से कोलकाता के बीच का सफर तय करेगी। आंकड़ों की मानें तो तब तक इन दोनों शहरों के बीच सबसे तेज चलने वाली ट्रेनें आमतौर पर 20 घंटे से ज्यादा का समय लेती थी। लेकिन 1 मार्च 1969 को वह हुआ जिसकी अभी तक सिर्फ कल्पना की जा रही थी। 1 मार्च 1969 ही वह तारीख है जिस दिन पहली बार राजधानी एक्सप्रेस नई दिल्ली से हावड़ा के लिए 17:30 बजे रवाना हुई और अगले दिन 10:50 बजे हावड़ा पहुंची। राजधानी एक्सप्रेस 17 घंटे 20 मिनट के रिकॉर्ड समय में 1450 किमी की दूरी तय करने वाली भारत की पहली ट्रेन बनी। शुरुआत में राजधानी एक्सप्रेस की अधिकतम गति 100 किमी/घंटा थी। 1972 तक भारत में एकमात्र राजधानी एक्सप्रेस थी जिसने अलग अलग राज्यों की राजधानी को जोड़ने का काम जारी रखा। उसके बाद भारतीय रेलवे ने मुंबई और नई दिल्ली के बीच एक और राजधानी एक्सप्रेस शुरू की जिसका नाम बॉम्बे राजधानी एक्सप्रेस (अब मुंबई राजधानी एक्सप्रेस) रखा गया। बाद में पटरियों के विकास के साथ-साथ अन्य राजधानी एक्सप्रेस को धीरे-धीरे पेश किया गया। नवीनतम राजधानी एक्सप्रेस जिसे अब हज़रत निज़ामुद्दीन एक्सप्रेस कहा जाता है, उसको भी शुरू किया गया। हालांकि, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मिजोरम, उत्तराखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड और पंजाब जैसे राज्यों के किसी भी प्रमुख शहर से अब तक राजधानी एक्सप्रेस नहीं मिलती है। भारतीय रेलवे द्वारा आज भी राजधानी एक्सप्रेस को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है। बात करें राजधानी एक्सप्रेस के गुणों के बारे में तो ये पूरी तरह से वातानुकूलित हैं। यात्रा के दौरान इसमें यात्रियों को वैकल्पिक खाना (ट्रेन के किराए में शामिल भोजन की कीमत) दिया जाता है। यात्रा की तारीख और वक़्त के हिसाब से, इनमें सुबह की चाय, नाश्ता, दोपहर और रात का खाना शामिल किया जाता है। सभी राजधानी एक्सप्रेस ट्रेनों में तीन प्रकार के वातानुकूलित डिब्बे हैं। एसी फर्स्ट क्लास (1A) 2-बर्थ और 4-बर्थ कूप (गोपनीयता के लिए लॉकिंग सुविधा के साथ), एसी 2-टियर (2T) ओपन बे के साथ (4 बर्थ / बे + 2, प्रत्येक खाड़ी के गलियारे के दूसरी तरफ बर्थ), गोपनीयता के लिए पर्दे प्रदान किए गए हैं और एसी 3-टियर (3T) खुले बे के साथ (प्रत्येक खाड़ी के गलियारे के दूसरी तरफ 6 बर्थ/खाड़ी + 2 बर्थ) बिना पर्दे, आदि सुविधाएं उपलब्ध हैं।

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  • नौजवानों के लिए नया नशा आई पी एल! नौजवानों के लिए नया नशा आई पी एल!

    नौजवानों के लिए नया नशा आई पी एल!

    भारतीय क्रिकेट में एक नई पहचान बना चुका आई पी एल आज बड़ी चुनौती बन चुका है। जब आई पी एल शुरू हुआ तो लगा था कि क्रिकेट का ये नया अंदाज़ क्रिकेट की दिलचस्पी मे इज़ाफ़ा करेगा, लेकिन हुआ ये कि ये आज के नौजवानों के लिए नशा बन गया है। बड़े बड़े कारोबारी बड़ी रक़म देकर खिलाडियों को खरीदते हैं जिससे वो बड़ा मुनाफा कमाते हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ नौजवानों को सट्टे जैसी लत लगाई जा रही है। कमाल की बात ये है कि सट्टे जैसी ग़ैर क़ानूनी चीज़ को लाइसेंस देकर क़ानूनी बनाया गया है। जिसका बड़े बड़े स्टार और खिलाडी इश्तेहार के ज़रिये प्रचार भी कर रहे हैं। इससे ये भी अंदाज़ा होता है कि उन स्टार और खिलाडियों को भी फायदा हो रहा है जो ऐसे इश्तेहार का हिस्सा बन रहे हैं। यहाँ अगर किसी का नुकसान हो रहा है तो वो है आज का नौजवान जो आई पी एल जैसे खेल मे सट्टा लगाकर अपना वक़्त और पैसा दोनो बर्बाद कर रहा है। यही वजह है कि जिस वक़्त आई पी एल मैच शुरू होता है उस वक़्त आज का नौजवान अपना काम काज छोड़कर टी वी के सामने चिपककर बैठ जाता है। अब सवाल ये है कि इसमें सट्टे को बंद क्यों नहीं किया जा रहा है? ये तो खेल है और खेल में सट्टे का क्या काम? इन सभी सवालों का एक ही जवाब है वो ये कि इसमें बड़े बड़े सट्टा कारोबारियों का हाथ है। यही वजह थी कि आई पी एल को तब भी बंद नहीं किया गया जब कोरोना ने पूरे हिंदुस्तान मे तबाही मचाई हुई थी। लोग बेरोज़गार हो चुके थे और भूख की वजह से मर रहे थे। बल्कि उस वक़्त भी इसे हिंदुस्तान मे न कराकर बाहर के मुल्को मे कराया गया। ताकि उन कारोबारियों को नुकसान न हो जो इसकी आड़ में सट्टे का कारोबार चलाते हैं। अगर यही हाल रहा तो नौ जवान ऐसे ही अपनी ज़िंदगी बर्बाद करता रहेगा। इसलिए खेल को खेल ही रहने दिया जाए तो बेहतर है। और सरकार को भी चाहिए कि इस तरफ़ भी थोड़ा ध्यान दें।

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  • उर्दू पत्रकारिता और जंग-ए-आज़ादीउर्दू पत्रकारिता और जंग-ए-आज़ादी

    उर्दू पत्रकारिता और जंग-ए-आज़ादी

    जंग-ए-आज़ादी में उर्दू सहाफत ने अहम भूमिका निभाई है। उस वक्त लोग अलग-अलग तरीकों से अपना गुस्सा ज़ाहिर कर रहे थे और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ बग़ावत कर चुके थे। यह विद्रोही पागलपन दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। ब्रिटिश सरकार के बढ़ते उत्पीड़न के कारण देश के बुद्धिजीवियों, विद्वानों, कवियों, विचारकों और देशभक्तों को लगा कि अब सब्र का बांध टूट गया है और ये लड़ाई हम सभी को बड़े पैमाने पर लड़नी चाहिए, इसलिए समान विचारधारा वाले लोगों का एक समूह बनाया जाना चाहिए। उसका सबसे प्रभावशाली माध्यम पत्रकारिता था। पत्रकारिता हमेशा समाज के साथ रही है इसीलिए उसका समाज पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। इन देशभक्तों ने क़लम की ताक़त अपनी इंद्रियों को दी और इस तरह उर्दू पत्रकारिता ने एक ऐसे आंदोलन का रूप ले लिया जिससे जनता को जगाना बहुत आसान हो गया। इसकी पुष्टि अपने समय के प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने की है:

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  • भ्रष्टाचार...भ्रष्टाचार...

    भ्रष्टाचार...

    भ्रष्टाचार की एक बड़ी वजह धैर्य का ना होना...

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